४९८अ (498a) से सम्बंधित कुछ तथ्य

Facts About 498a

भारतीय दंड संहिता धारा ४९८अ (498a) परिचय

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भारत में अनेक क़ानून हैं। इन्हें संवैधानिक विधान, नागर विधान, आपराधिक विधान, पारिवारिक विधान, संपत्ति विधान, एकस्व विधान, अपकृत्य विधान आदि क़ानून के विविध प्रकारों में बांटा जा सकता है। भारतीय दंड संहिता देश में आपराधिक विधान के मौलिक स्त्रोतों में से एक है।

सामान्यतः पारिवारिक जीवन और उस से जुड़ी समस्याओं को पारिवारिक विधान के अधीन निर्देशित किया जाता है, परन्तु विवाह बंधन की सीमाओं के अंदर किसी पति या उस के माता पिता, भाई, बहन, दादा, दादी अथवा अन्य सम्बन्धियों (बच्चों और पत्नी के जन्म परिवार सदस्यों को छोड़ कर) द्वारा किये गए कुछ कृत्य आपराधिक स्वरूप निहित माने जाते हैं। ऐसे कृत्यों के परिणामों का निर्देशन आपराधिक विधान द्वारा अथवा कुछ ऐसे कानूनों द्वारा किया जाता है जो स्वरूप में आपराधिक और नागर दोनों हैं।

ऐसे कानूनों और अधिनियमों में से सामान्यतः प्रयोग किये जाने वाले क़ानून भारतीय दंड संहिता की कुछ धाराएं हैं। इन धाराओं में अन्य धाराओं के अतिरिक्त भा.दं.सं. धारा ४९८अ (498a), धारा ४०६, और धारा ३४ सम्मिलित हैं। भा.दं.सं. धारा ४९८अ (498a) से तात्पर्य है पति अथवा उसके माता पिता अथवा सम्बन्धिओं द्वारा वधु / पत्नी पर किये गए अत्याचार, क्रूरता, एवं प्रताड़ना का। इस धारा के अंतर्गत पत्नी / वधु के जन्म परिवार के सदस्य अथवा उस से सम्बंधित लोग आरोपित होने योग्य सम्बन्धियों की श्रेणी में नहीं डाले जा सकते। धारा को आकर्षित करने हेतु सामान्यतः उसी क्रूरता को गिना जाता है जो दहेज की किसी मांग से सम्बंधित हो। असाधारण प्रकरणों में यह धारा बिना किसी दहेज की मांग की उपस्थिति में की गयी क्रूरता को लेकर भी आकर्षित हो जाती है। गत वाक्य में कथित क्रूरता उक्त धारा को आकर्षित करने हेतु इस प्रकार की और इस श्रेणी की होनी ज़रूरी है जो पत्नी को गंभीर मानसिक अथवा शारीरिक नुक्सान पहुंचाए अथवा किसी मानसिक रूप से स्वस्थ पत्नी को भी इस मुकाम पर ले जाए जहाँ वो आत्महत्या की कोशिश करने पर मजबूर हो जाए। ४९८अ (498a) के अनाच्छादित कलेवर का अनुवाद इस प्रकार से है—

४९८अ (498a)। पत्नी पर क्रूरता करता हुआ पति अथवा पति का नातेदार– ऐसा कोई भी व्यक्ति, जो कि किसी महिला का पति या उस के पति का नातेदार हो, यदि ऐसी महिला के साथ क्रूरता करता है तो उसे तीन वर्ष की अवधि तक कारावास का दंड दिया जायेगा और (वह) जुर्माने का पात्र भी होगा।
१) स्पष्टीकरण। - इस धारा में "क्रूरता" शब्द से आशय है—
(क) जानबूझ कर किया गया ऐसा आचरण जो उक्त महिला को आत्महत्या करने को मजबूर कर दे, अथवा उसे जीवन, शरीर, अथवा स्वास्थ्य (मानसिक अथवा शारीरिक) की गंभीर हानि या खतरा पहुंचाए, अथवा;
(ख) महिला का उत्पीड़न, जहाँ उत्पीड़न से ऐसे उत्पीड़न का तात्पर्य है जो कि महिला से या उस से सम्बंधित व्यक्ति से या तो किसी प्रकार की संपत्ति अथवा कीमती प्रतिभूति की गैर कानूनी मांग को जबरन पूरा करने हेतु किया जाए अथवा ऐसी स्थिति में किया जाए जब उस ने या उस के किसी सम्बन्धी ने ऐसी मांग को पूरा करने से इंकार कर दिया हो।
भा.दं.सं. की धारा ४९८अ (498a) एकमात्र ऐसी धारा है जिस के लिए संहिता का पूरा एक अध्याय समर्पित है। भा.दं.सं. धारा ४०६ का आशय ज़मानत में खयानत के आपराधिक स्वरूप से सम्बंधित है। स्त्रीधन हथियाने के असली या नकली इल्ज़ामों के तहत धारा ४०६ का आह्वान किया जा सकता है। भा.दं.सं. धारा ३४ सामान्य आपराधिक मंशा को लेकर आह्वानहित की जाती है।

४९८अ (498a) सम्बंधित प्रश्न

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क्या ४९८अ (498a) प्रकरण से आरोपोपरांत बचना संभव है?पृष्ठ शीर्षभाग  
अक्सर लोग इस सवाल को ज़्यादा साफ़ तौर से पूछते हैं, "क्या किसी पत्नी द्वारा आक्षेप पश्चात ४९८अ (498a) प्राथमिकी का पंजीकरण रोका जा सकता है?" न्यायसंगत है कि उत्तर भी इतना ही स्पष्ट होना चाहिए। यदि आप की पत्नी ने आप के विरुद्ध ऐसा आपराधिक आक्षेप प्रेषित किया हो जिस में उस ने आप की ओर से ऐसे (सच्चे या झूठे) व्यवहार का आरोप लगाया हो जैसा व्यवहार ऊपर दिए गए भा.दं.सं. धारा ४९८अ (498a) के कलेवर में इंगित है, और यदि आप दोनों उस के आक्षेप पश्चात समझौता नहीं कर पाएं हों, और यदि ४९८अ (498a) द्वारा दण्डोचित कृत्यों की वैधता का अवधिताकाल आक्षेप में वर्णित कृत्यों से ले कर आक्षेप के प्रेषित होने तक समाप्त नहीं हुआ हो, तो ४९८अ (498a) पर आधारित प्राथमिकी को दर्ज होने से हरगिज़ नहीं रोक जा सकता।


४९८अ (498a) प्रकरण में प्राथमिकी पंजीकरण उपरान्त क्या गिरफ्तारी से बचना संभव है?पृष्ठ शीर्षभाग  
हाँ, ऐसा संभव है। यदि पुलिस इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आप की गिरफ्तारी ज़रूरी और लाज़मी नहीं है तो गिरफ्तारी होगी भी नहीं। लेकिन यदि कालांतर में उन की राय बदल जाये तो वे आप को बाद में (यानि विवेचना के दौरान, आरोप पात्र दाखिल करने के समय पर, अथवा न्यायिक विचारण के दौरान) गिरफ्तार कर सकते है। किसी भी अधिकार युक्त न्यायालय से अग्रिम ज़मानत आदेश पारित करवा लेना गिरफ्तार होने से बचने का एक और तरीका है, जो कि अपने आप में एक गारंटीशुदा तरीका है।


क्या आरोपकर्ता पत्नी अपने आक्षेप में किसी का भी नाम सम्मिलित कर सकती है, जैसे कि अपने पति की भाभी, उसके चाचा चाची, मामा मामी इत्यादि के नाम?पृष्ठ शीर्षभाग  
वो चाहे तो अपने शिकायत पत्र में वैटिकन नगर के पोप का नाम भी लिख सकती है। लेकिन अनर्गल रूप से आक्षेप में लिखे नातेदारों के नामों को पुलिस भी गंभीरता से नहीं लेती है, और अदालत तो बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लेती है। इस तरह से नामों को लिखने का यह मतलब कतई नहीं है की पुलिस ऐसे रिश्तेदारों को सवाल जवाब के लिए थाने में बुलाएगी। ऐसे हथकंडों को अपनाने वाली महिला अदालत द्वारा अपने पति के दोषी करार दिए जाने की सम्भावना को भी कम कर देती है।


क्या मुझे गिरफ्तार किया जायेगा? क्या मेरे माता पिता को गिरफ्तार किया जायेगा?पृष्ठ शीर्षभाग  
माता पिता नगण्य प्रतिशत प्रकरणों में गिरफ्तार किये जाते हैं। पतियों को उन प्रकरणों में गिरफ्तार किया जाता है जिन में पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने का फैसला करती है। लेकिन यदि पति अदालत से अपने अग्रिम ज़मानत आवेदन पर वांछित आदेश प्राप्त कर ले तो उसे भी गिरफ्तार नहीं किया जा सकता


क्या ४९८अ (498a) अविरत अपराध है?पृष्ठ शीर्षभाग  
ये सवाल ही गलत है। सही सवाल कुछ इस तरह से होगा, "क्या पत्नी पर थोपी गयी दहेज प्रताड़ना / मानसिक यातना / शारीरिक यातना के अपकार को अविरत अपकार / अविरत अपराध माना जा सकता है, और क्या ऐसे अपकार के बाद अवधिताकाल समाप्त होने के बाद भी पत्नी द्वारा आक्षेप प्रेषित होने पर भा.दं.सं. धारा ४९८अ (498a) के अंतर्गत प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है?" इस प्रश्न का उत्तर है, "संभवतः ऐसी प्राथमिकी पंजीकृत की जा सकती है, विशेष रूप से तब जब मानसिक यातना इस प्रकार की हो जो पत्नी को पति और उस के परिवार से दूर हो जाने के बहुत बाद भी परेशान करती हो।" यहाँ ये सवाल लाज़मी है कि क्या पुलिस उपरोक्त प्रश्न का उत्तर प्रदान करने को सक्षम है। इस का सीधा और अफसोसनाक जवाब ये है कि नहीं, ऐसे प्रश्न का उत्तर देना सिर्फ किसी न्यायाधीश के बस की बात है। कुल मिला के बात कुछ ऐसी निकलती है कि ४९८अ (498a) आक्षेप अवधिताकाल समाप्त होने के बाद भी प्रेषित किया जा सकता है और ऐसे आक्षेप पर रपट दर्ज होने के पूरे पूरे आसार हैं।


धारा ४९८अ (498a) को नाम स्वरुप संख्या और संख्यापश्चात अक्षर क्यों दिया गया? ४९८ ही क्यों, ४९९ या ४९७अ क्यों नहीं?पृष्ठ शीर्षभाग  
जी हाँ। इसे भा.दं.सं. धारा २००० या फिर धारा ४४४ या कुछ और क्यों नहीं कहा जाता?

सन १९८३ में जब धारा ४९८अ (498a) को भारतीय दंड संहिता में संलग्न किया गया था उस वक्त पहले ही संहिता में धारा ४९८ उपस्थित थी। धारा ४९९ भी थी, और धारा ४९७ भी थी। ४९३ से ४९८ तक संख्याओं का प्रयोग ऐसे अपकारों (या अपकारों के दण्डों) को वर्णित करने के लिए किया गया था जो किसी पक्ष द्वारा (विशेषतः पति या पत्नी द्वारा) विवाह सम्बन्ध के सन्दर्भ में करे जाते हैं। ४९९ का प्रयोग मानहानि के अपराध को वर्णित करने के लिए किया जा रहा था। ४०१ से ले कर ४९२ तक संख्याएं भी किन्ही अपकारों के वर्णन के सन्दर्भ में व्यस्त थीं।

चूँकि पत्नी का उत्पीड़न या उसे यातना देने का अपराध भी विवाह सम्बन्ध के सन्दर्भ में एक पक्ष द्वारा कार्यान्वित किया जाता है इसलिए इस अपराध को वर्णित करने वाली धारा का प्रस्तुत सन्दर्भ में ४९३ से ४९८ की श्रृंखला से किसी प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा होना वांछित बन जाता था।

उपरोक्त कारणों से उक्त धारा को ४९३ से ४९८ में से एक धारा के अंत में प्रत्यय नत्थी कर के नामांकित किया गया। चुनी गयी धारा थी ४९८ और प्रत्यय था "अ" ।

होशियार पाठक अब पूछेगा कि ४९८अ (498a) ही क्यों, ४९३अ या ४९४अ या ४९५अ क्यों नहीं? प्रश्न इसलिए तर्कसंगत है क्यूंकि धारा ४९८ में वर्णित अपराध (किसी पर पुरुष का किसी विवाहित महिला को भगा के ले जाना) का ४९८अ (498a) में वर्णित अपराध (दहेज हेतु उत्पीड़न) से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं दिखाई पड़ता (सिवाय इस बात के कि दोनों अपराधों को क्रियान्वित करने से पहले विवाह सम्बन्ध का सन्दर्भ आवश्यक है। इसका उत्तर कदाचित यह है कि हमारे विधिनिर्माताओं को ४९८अ (498a) हेतु भारतीय दंड संहिता में एक अलग और नया अध्याय प्रयोग करने की ज़रुरत महसूस हुई। लेकिन ऐसी ज़रुरत क्यों महसूस की गयी? इस प्रश्न का उत्तर भी अनुमानित किया जा सकता है। देखिये एक तथ्य को। भारतीय दंड संहिता के बीसवें अध्याय में (यानि धारा ४९३ से धारा ४९८ तक) वर्णित सभी अपराधों में अवैध लैंगिक सम्बन्ध या अवैध लैंगिक सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा का पुट सर्व विद्यमान है। दहेज़ उत्पीड़न या पत्नी को यातना देने में लैंगिक सम्बन्ध रुपी हथियार का प्रयोग अनिवार्य नहीं है। अतैव ४९८अ (498a) के लिए एक अलग अध्याय बनाया गया जिस को भारतीय दंड संहिता के अध्याय २०अ की संज्ञा दी गयी। १९अ संख्या देते तो विवाह सम्बन्ध का सन्दर्भ खो जाता। चूँकि २०अ संख्या दी तो फिर बीसवें अध्याय के अंत में नत्थी करना तर्कसंगत बन गया। इसलिए ४९८अ (498a)।

यह अध्याय सिर्फ उन अपराधों (या उन से उत्पन्न दण्डों) के वर्णन के लिए समर्पित है जो पति और उस के नातेदार विवाहिता से करते हैं। विश्वास रखिये यदि सरकार कल को इस प्रकार के कुछ और अपराध ढूंढ लेती है तो उन्हें इसी अध्याय में स्थान मिलेगा, हालांकि उन अपराधों की धाराओं को क्या नंबर दिए जाएंगे यह सिर्फ ईश्वर को ज्ञात है –शायद ४९८आ, ४९८इ, ४९८ई इत्यादि!


क्या ४९८अ (498a) के अंतर्गत आरोपित व्यक्ति को निर्दोष साबित होने तक दोषी माना जाता है?पृष्ठ शीर्षभाग  
नहीं। ४९८अ (498a) आधीन दोषी व्यक्ति को अनिवार्य रूप से दोषी मानने की कोई वैध उपधारणा नहीं है, सिवाय ऐसी स्थिति के जब ४९८अ (498a) के साथ साथ ऐसे व्यक्ति पर किसी विवाहिता की आत्महत्या को उस के विवाहोपरांत ७ वर्ष के भीतर प्रोत्साहित करने का कानूनी आरोप हो। ऐसा भारतीय साक्षय अधिनियम की धारा ११७अ में दिए गए प्रावधान के मद्देनज़र किया जाता है। विवाह से तात्पर्य है किसी भी प्रकार के समारोह का, उदाहरणतः सात फेरे लेना, आनंद कारज करना, मौलवी से निकाह पढ़वाना, नागर पद्धति से विवाह करना इत्यादि। साक्ष्य अधिनियम की यह धारा और दंड संहिता की धारा ४९८अ (498a) का जन्म १९८३ में आपराधिक कानून (द्वितीय संशोधन) अधिनियम (जिसे अधिनियम ४६, १९८३ के नाम से भी जाना जाता है) के माध्यम से साथ साथ हुआ था। शायद इसी वजह से अनेक प्रकार के लोगों के मन में अनिवार्य रूप से दोषी मानने की उपधारणा को लेकर गलत धारणा बन गयी थी, जो कि अब तक विद्यमान है।

दोषी मानने की अनिवार्यता दंड संहिता की धारा ३०४ब के अंतर्गत आरोपों का अभिन्न अंग है। इस की वजह है भारतीय साक्षय अधिनियम की धरा ११३ब।


क्या ४९८अ (498a) का निरसन हो चुका है?पृष्ठ शीर्षभाग  
नहीं। केवल वह अधिनियम (आपराधिक कानून (द्वितीय संशोधन) अधिनियम, जिसे अधिनियम ४६, १९८३ के नाम से भी जाना जाता है) रद्द हुआ था जिस के माध्यम से १९८३ में धारा ४९८अ (498a) का उदघाटन हुआ था। इस संशोधन की रदद्गी निरसन एवं संशोधन अधिनियम १९८८ (जिसे अधिनियम संख्या १९, १९८८ के नाम से भी जाना जाता है) के माध्यम से की गयी थी। गौर तलब है कि इस उक्त दुसरे संशोधन अधिनियम ने (पहले लिखे गए संशोधन अधिनियम द्वारा) संशोधित भारतीय दंड संहिता को निरस्त नहीं किया था, अपितु उस पहले संशोधन अधिनियम मात्र को निरस्त किया था। संशोधन अधिनियम के निरसन से दंड संहिता पर कोई असर नहीं पड़ा क्यूंकि वह तो संशोधन अधिनियम के पारित होते ही बदल गयी थी, और उस के बदले हुए रूप को दुसरे संशोधन अधिनियम ने नहीं छेड़ा। चूँकि संहिता संशोधित हो चुकी थी, इसलिए संशोधन अधिनियम को जन्मस्थ शून्य घोषित करने के अलावा संशोधन अधिनियम के साथ कुछ भी करने से भारतीय दंड संहिता पर कोई असर डालना असंभव था।


क्या (अन्य धाराओं सहित) धारा ४९८अ (498a) के तहत पंजीकृत प्राथमिकी को रद्द किया जा सकता है? क्या ऐसा आदेश प्राप्त करने की कोशिश करना किसी अक्लमंद आरोपी की निशानी है?पृष्ठ शीर्षभाग  
हाँ यह संभव है लेकिन बिलकुल भी आसान नहीं है। देश के प्रत्येक उच्च न्यायालय को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा ४८२ द्वारा प्रदान शक्तियों के कारण किसी भी आपराधिक प्राथमिकी को निरस्त / रद्द करने का अधिकार है। लेकिन ऐसा निरस्तीकरण अदालतों द्वारा बहुत दुर्लभ अवसरों पर देखा जाता है। इस एक वजह है, जो कि भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा [Madhu Limaye vs. State of Maharashtra, AIR 1978 SC 47 : 1978 Cr LJ 165] में पारित एक आदेश है। इस आदेश में उच्चतम न्यायालय ने यह घोषित किया था कि उच्च न्यायालयों को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा ४८२ के अंतर्गत किसी भी प्राथमिकी को निरस्त करते हुए निम्नलिखित सिद्धांतों का पालन अनिवार्य रूप से करना है—
१) निरस्त करने के अधिकार को आपराधिक प्रक्रिया संहिता में आक्षेपकर्ता के कष्ट के निवारण हेतु कोई विशेष प्रावधान उपस्थित होने की स्थिति में प्रयोग नहीं करना है।

२) इस अधिकार को न्याय प्रक्रिया के दुष्प्रयोग से बचने हेतु और न्याय करने हेतु कम से कम प्रयोग करना है।

३) आपराधिक प्रक्रिया संहिता के किसी प्रावधान में प्रतिबन्ध विशेष होने की स्थिति में इस अधिकार का प्रयोग नहीं करना है।
मोटे तौर पर ४९८अ (498a) अंतर्गत पंजीकृत किसी भी आपराधिक प्राथमिकी को रद्द करने के दो तरीके हैं —
     १) पूर्णतः निरसन / रद्द्गी, और
     २) आक्षेपकर्ता द्वारा अपकार प्रशमन, अर्थात समझौता पश्चात् प्रशमन।

पहले प्रकार का निरसन बहुत काम देखा जाता है, और इस प्रकार के निरसन की याचना करना बहुत अक्लमंदी की बात नहीं है, क्यूंकि जिन तथ्यों के आधार पर निरसन की मांग की जाती है प्रायः उन्हीं तथ्यों के आधार पर आरोपों से दोषमुक्ति मांगी जाती है। यदि निरसन कार्रवाई में अवांछित आदेश मिलता है तो अभियुक्तों को तीन तरह से नुक्सान होने का डर है –वे नकारात्मक आदेश से हतोत्साहित हो जायेंगे, उन्हें वक्त, पैसा और कानूनी अनुकूलता का नुक्सान होगा, और उन के सारे पत्ते विपक्ष को दिख जायेंगे।

दूसरे प्रकार की रद्द्गी बहुत आम है और इसे हर रोज़ देखा जा सकता है, उदाहरणतः [State of Andhra Pradesh vs. Aravapally Venkanna, AIR 2009 SC 1863 : (2009) 13 SCC 443] में, हालांकि ऐसा Madhu Limaye vs. State of Maharashtra में दिए गए फैसले में उपरोक्त तीसरे बिंदु के सरासर खिलाफ है।


भा.दं.सं. धारा ४९८अ (498a) के अंतर्गत दर्ज किये गए कुछ प्रसिद्द प्रकरण

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आंध्र प्रदेश मंत्री प्रकरणपृष्ठ शीर्षभाग  
आंध्र प्रदेश विधान सभा के एक सदस्य, प शंकर राव पर २०१३ में दहेज उत्पीड़न का आरोप लगा। उन्हें अग्रिम ज़मानत तो मिल गई लेकिन इस के कुछ समय बाद गवाहों को डराने और धमकी देने के आरोप के फलस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अपनी गिरफ्तारी के समय वे सिकंदराबाद क्षेत्र से जान प्रतिनिधि थे, और पूर्व काल में उन्होंने सिंचाई मंत्रालय और कांग्रेस संसदीय दल के उप नेता के पदों को शोभा दी थी। ऐसा प्रतीत होता है के इन सज्जन पर जालसाज़ी, धोखाधड़ी, और ज़मीन हथियाने के आरोप भी लग चुके हैं।


ओडिशा मंत्री प्रकरणपृष्ठ शीर्षभाग  
ओडिशा के विधान मंत्री रघुनाथ मोहंती को २०१३ में पुत्र वधु द्वारा दहेज सम्बंधित यातना के आरोप लगने के बाद सपत्नीक गिरफ्तार किया गया। उनके पारिवारिक जीवन और कार्यभार पथ को एक महीने से काम के अंतराल में कई धक्के लगे। सबसे पहले उन्हें कानून मंत्री के पद से हाथ धोने पड़े। फिर उनका पुत्र गिरफ्तार हुआ। फिर उन्हें अपनी पत्नी के साथ पश्चिम बंगाल में शरण लेनी पड़ी। और अंत में एक रात भोर से पहले ओडिशा पुलिस के मानवाधिकार प्रकोष्ठ के एक विशेष तेज़ दस्ते ने उन्हें हावड़ा में धर दबोचा।


युक्ता मुखी / प्रिंस तुली प्रकरणपृष्ठ शीर्षभाग  
इस प्रकरण की वजह से महाराष्ट्र के एक होटल मालिक और व्यवसाय मूर्ती प्रिंस तुली को २०१३ में बहुत बदनामी सहनी पड़ी। उनकी सिने तारिका पत्नी (जो भूतपूर्व सौंदर्य प्रतियोगिता विजेत्री भी हैं) ने उन पर अप्राकृतिक लैंगिक सम्बन्ध स्थापित करने का आरोप लगाया। उनके विवाह को उच्च समाज पत्रिकाओं और सप्ताहांत समाचार पत्रों में बहुत लोक प्रचार मिला था। दूल्हा और दुल्हन दोनों खूबसूरत थे और अपने भौतिक सौंदर्य पर दोनों को बहुत गर्व था। बहुत जल्द उनके सम्बन्ध से एक नन्हे बालक के रूप में उत्तराधिकारी पैदा हुआ। नियंत्रण अभिलाषा के कारण दोनों के अहम का टकराव शुरू हो गया, जिसने धीरे धीरे विकराल रूप धारण कर लिया और विवाह सम्बन्ध को नेस्तनाबूद कर दिया। इस के फलस्वरूप समाज में दोनों को बहुत बेइज़्ज़ती, बदनामी, और अवांछित प्रचार सहना पड़ा, हालांकि यह तर्क भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि पति को ज़्यादा नुक्सान हुआ क्योंकि उसे बदमाश की संज्ञा दी गयी, जब कि इस प्रकरण में भी पत्नी को आम दहेज़ प्रकरणों की तरह हर्जाना मिला।


फिल्म अभिनेता प्रशांत प्रकरणपृष्ठ शीर्षभाग  
तमिलनाडु के एक लोकप्रिय फिल्म अभिनेता का अपनी पत्नी के साथ मन मुटाव हो गया, और पत्नी ने उन पर आरोप लगाये कि वे पत्नी को दहेज हेतु यातना देते थे और उसे उस के माता पिता से संपर्क नहीं करने देते थे। यह घटना २००७ की है। पत्नी के आक्षेपोपरांत तुरंत रपट दर्ज की गयी लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिस ने आरोपों को निराधार बता कोई आरोपपत्र दाखिल नहीं करवाया। कार्यप्रणाली अनुसार प्राथमिकी तदोपरांत निरस्त की गयी होगी लेकिन इस लेखक को निरसन सम्बंधित सामग्री इंटरनेट पर नहीं मिली है। दहेज प्रकरणों में आम एक दिलचस्प खोज इस मामले में भी निकली। खोज ये निकली के उत्पीड़न का इलज़ाम लगने से पहले उक्त अभिनेता अपनी पत्नी पर पैसा पानी की तरह बहा रहे थे।


भा.पु.से. बनाम भा.पु.से. – हिमाचल प्रदेश महानिदेशक प्रकरणपृष्ठ शीर्षभाग  
यह मामला २०१४ का है। हिमाचल प्रदेश के सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक गुरप्रीत गिल और उन की पत्नी पर धारा ४९८अ (498a) और ४०६ अंतर्गत आरोप लगाये गए। उन के पुत्र अर्जुन गिल पर उस की मंगेतर ने दहेज उत्पीड़न के अलावा अपने साथ बलात्कार करने का आरोप लगाया, जिस के फलस्वरूप धारा ३७६ (बलात्कार) और ५११ (आजीवन कारागार से दंडनीय अपराध करने की कोशिश) आकर्षित हुईं। अर्जुन बाद में गिरफ्तार हुआ और न्यायिक हिरासत में भेजा गया। उस के माता पिता को उन के विरुद्ध सबूतों के अभाव के कारण गिरफ्तार नहीं किया गया। तथाकथित रूप से पुलिस ने अर्जुन से दहेज की सामग्री बरामद की। संयोग से शिकायतकर्त्री मंगेतर के पिता पंजाब पुलिस में महानिरीक्षक स्तर पर राजधानी चंडीगढ़ स्थित उच्चाधिकारी हैं।


भा.पु.से. बनाम भा.पु.से. – पंजाब महानिदेशक प्रकरणपृष्ठ शीर्षभाग  
पंजाब पुलिस के महानिदेशक एस.एस. विर्क ने अपनी पुत्री का विवाह केरल में कार्यरत भारतीय पुलिस सेवा के एक अफसर से २००६ में सम्पन्न किया। संयोगवश उन की पुत्री की अपने पति विक्रमजीत सिंह से नहीं बनी। विक्रमजीत नया नया सहायक अधीक्षक था। उस की पत्नी ने उस के विरूद्ध दहेज सम्बंधित उत्पीड़न का आक्षेप प्रेषित किया जिस के फलस्वरूप केरल पुलिस ने अपने ही अधिकारी के विरूद्ध रपट दर्ज की। नौजवान भारतीय पुलिस सेवा अधिकारी ने अग्रिम ज़मानत हेतु आवेदन प्रेषित किया जो पत्नी से समझौते के मद्देनज़र मंज़ूर हो गया। बाद में उस के माता पिता को पुत्र वधु को विवाह के खर्चे के हर्जाने में पंद्रह लाख रुपये का भुगतान करने का आदेश दिया गया।

बाद में सुनने में आया कि एस.एस. विर्क को अगले वर्ष पंजाब के सतर्कता ब्यूरो ने दिल्ली में स्थित महाराष्ट्र सदन से गिरफ्तार किया। उन के विरूद्ध आय से अधिक संपत्ति होने, धोखाधड़ी, और ज़मीन हथियाने का प्रकरण पंजीकृत किया गया।


निशा शर्मा दहेज मामले पृष्ठ शीर्षभाग  
निशा शर्मा नाम की एक महिला ने नॉएडा में स्थित विवाह स्थल से अपनी शादी के दिन दूल्हे के साथ आई बारात को उल्टा रवाना कर दिया और दूल्हे और उस के निकटजनों पर दहेज़ उत्पीड़न के आरोप जड़ दिए। बात सन २००३ की है। उस के दूल्हे ने उल्टा आरोप लगाया कि निशा का एक और चाहने वाला है जो कहता है कि वो और निशा पहले से ही एक दुसरे के साथ शादीशुदा हैं। बड़ा हंगामा हुआ और मीडिया ने मामले को बहुत प्रचार दिया। कुछ महीने बाद निशा ने किसी तीसरे शख्स से शादी कर ली। दूल्हे मुनीश दलाल और उस के परिवारजनों को लगभग एक दशक की मुकदमेबाजी के बाद नॉएडा की एक अदालत ने बरी किया।

मुनीश दलाल पुरुषाधिकार कार्यकर्ता बन गया। कालांतर में निशा के विरूद्ध उस की भाभी ने हरियाणा के पानीपत ज़िले में रपट दर्ज करवाई।


घरेलू हिंसा अधिनियम परिचय

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घरेलू हिंसा नारी रक्षा अधिनियम २००५ एक और ऐसा विधान है जो प्रायः प्रयोग किया जाता है। यह कानून केवल पत्नियों हेतु नहीं बनाया गया था। इस क़ानून को बहनें अपने भाइयों के विरुद्ध और माताएं अपने पुत्रों के विरुद्ध भी कर सकती हैं। साँसों द्वारा बहुओं के विरुद्ध आक्षेप भी इस अधिनियम के अंतर्गत वर्जित नहीं हैं। ऐसी कार्रवाई पूर्णतयः अनुज्ञप्त है, विशेष रूप से ऐसी स्थितियों में जब माताओं को बदमाश पुत्र और पुत्र वधु मिल के तंग करते हैं। लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि ऐसी शिकायतों को पुलिस द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता और अदालत का दरवाज़ा खटखटाना पड़ जाता है।

लेकिन पति और उस के अन्य निकट सम्बन्धियों को ऐसा कोई अधिकार नहीं है। शायद यही वजह है कि अक्सर पुरुष अधिकार कार्यकर्ता महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय को पत्नी एवं बाल कल्याण मंत्रालय के नाम से पुकारते हैं। लेकिन इस अधिनियम में एक राहत देने वाला प्रावधान है, और वो ये है कि किसी सास को इस अधिनियम के अंतर्गत उस के घर से निकल बाहर नहीं किया जा सकता (हालांकि पुरुषों को ऐसा कोई रक्षा कवच नहीं दिया गया है)। आजकल अदालतों की ऐसी प्रवृत्ति बन गई है कि हर प्रकार के मामलों में (नागर मामलों में भी) मुख्य आरोपी / मुख्य प्रतिवादी (अर्थात पति) को छोड़कर बाकि सब से उदारतापूर्ण व्यवहार किया जाए। घरेलू हिंसा अधिनियम में एक दो आपराधिक प्रावधानों को छोड़कर बाकी प्रावधान नागरिक प्रावधान हैं। इतना ही नहीं, जो आपराधिक प्रावधान उपस्थित हैं उन प्रावधानों को भी ऐसी स्थिति में प्रयोग किया जा सकता है जब प्रतिवादी पक्ष द्वारा न्यायालय आदेशों का पालन नहीं किया गया हो। घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत पत्नियों द्वारा प्रायः प्रस्तुत की गयी याचनाओं में रख रखाव के पैसों का अनुरोध, हिंसक पति को पत्नी से दूूर रहने के आदेश, और घर में पत्नी को अनिवार्य रूप से आवास देने के आदेशों के आवेदन मुख्य हैं।


निष्कर्ष स्वरूप

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एक आम धारणा है कि पत्नी और उसके माता पिता, भाई भाभी, बहन जीजा इत्यादि अपने कुकृत्यों के लिए जवाबदार नहीं हैं। इस धारणा का सच्चाई से कुछ भी लेना देना नहीं है। पत्नी और उस के जन्म परिवार के सदस्यों द्वारा किये गए कुकृत्य, उदाहरणतः धोखाधड़ी, झूठे मामले दायर करवाना, तथ्यों को बढ़ा चढ़ा कर बताना, पुलिस और अदालतों के समक्ष झूठ बोलना, झूठे साक्ष्य देना इत्यादि विधानाधीन दंडनीय हैं। अच्छे वकील वाला मुकदमेबाजी का शौक़ीन पति ऐसे लोगों को उन के किये की सज़ा दिलवा सकता है। हत्या और बलात्कार जैसे संगीन जुर्मों में भी झूठे इलज़ाम लगाने वालों को कभी कभी सज़ा दी जाती है। ये अलग बात है कि ऐसा कभी कभी ही होता है। इस बात से हम जायज़ा ले सकते हैं कि दहेज मामलों जैसे कम संगीन जुर्मों में झूठे इलज़ाम लगाने वालों को सज़ा मिलनी कितनी अधिक सम्भाव्य है। मेरे ऐसा कहने के पीछे तर्क यह है कि हमारे देश में गंभीर आरोप लगाने वालों को बहुत अधिक वैधानिक संरक्षण दिया जाता है बगैर उन के आरोपों की सत्यता और असत्यता का लिहाज़ किये। बलात्कार के आरोप लगाने वालों को दिए जाने वाले संरक्षण को ही देखें। आरोपों के पूरी तरह मनगढंत साबित हो जाने तक के बाद भी ऐसे लोगों को जनता के सामने प्रस्तुत नहीं किया जाता है, और उन की बेनामगी उन्हें फिर से ऐसे कारनामे करने की आज़ादी दिए रखती है। लेकिन कोई भी अच्छा वकील आप को बता देगा कि ऐसे मुश्किल मामलों में भी कानूनी रास्ते से हिले बगैर बदला लिया जा सकता है। यहां तक कि हत्या के प्रकरण भी आरोपियों के लिए थोड़े आसान होते हैं। ऐसा भले ही तर्कसंगत प्रतीत न होता हो, लेकिन देश व्याप्त जनभावना को यदि समझा जाए तो बात समझी जा सकती है। दहेज आरोप इतने गंभीर नहीं होते हैं, और वे जघन्य या फिर गंभीर अपराधों की श्रेणी में भी नहीं गिने जाते, विशेषतः तब जब प्रकरण में किसी की मृत्यु न हुई हो। इसलिए लेखक ने ऊपर ऐसा दावा किया है।

पत्नियों द्वारा पतियों के विरुद्ध प्रेषित किये गए मामलों में देखी जाने वाली एक आम प्रवृत्ति यह है कि ऐसे मामले अक्सर अदालत के बाहर सुलटा लिए जाते है, और ऐसे बहुत कम मामले होते हैं जो उच्चतम न्यायालय तक पहुँचते हैं। ये भी देखा गया है कि सिर्फ करीब एक फ़ीसदी मामलों में दंड घोषणा होती है। इन कारणों से बहुत बड़े पैमाने पर लोगों ने ये इलज़ाम लगाना शुरू कर दिया है कि ऐसे मामलों में विधान का दुरूपयोग किया जाता है। उच्चतम न्यायालय ने भी गया है कि धारा ४९८अ (498a) वैधानिक आतंकवाद का रूप धारण कर चुकी है। अनेक उच्च न्यायालयों ने महिलाओं द्वारा डाले गए आरोपों में लिखित रूप से मीन मेख निकाली है। कुछ राज्य (विशेषतः आंध्र प्रदेश) तो इस हद तक चले गए हैं कि उन्होंने धारा ४९८अ (498a) में आने वाले अपराधों और तथाकथित अपराधों को संयोजनीय बना दिया है। धूर्त पत्नियों के विरुद्ध जान मंशा बढ़ती जा रही है। आप भी शायद इस में अपना योगदान दे पाएं, कोशिश तो करें।



द्वारा लिखित
मनीष उदार द्वारा प्रकाशित।

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अंतिम अद्यतन ३१ जुलाई २०१५ को किया गया
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