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ज़मानत निरस्तीकरण / रदद्गी
Bail Cancellation
आपराधिक न्याय प्रक्रिया भी जीवन के अन्य आयामों की तरह अनंत काल से द्वैत अर्थात द्वंद्व से ग्रस्त है। हमें भारतीय होने के नाते हिन्दू संस्कृति एवं शास्त्रों का थोड़ा बहुत ज्ञान है। अतः हम इस सिद्धांत से भली भांति परिचित हैं। वैधानिक दर्शन में अनादि काल से एक तरफ़ आरोपी के दोषी घोषित होने तक निर्दोष माने जाने के अधिकार और दूसरी तरफ़ शिकायतकर्ता के दबंग आरोपियों से बचे रहने के अधिकार और उस अधिकार से जुड़े हुए निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के बीच असीम द्वंद्वात्मक रहा है। ज़मानत एक ऐसा कानूनी प्रावधान है जिस के आपराधिक और शैतान तत्वों द्वारा आपराधिक सुनवाई को प्रभावित करने के नज़रिये से गलत इस्तेमाल की सम्भावना बहुत अधिक है। अक्सर देखा गया है कि आरोपियों को ज़मानत मिल जाती है और फिर ज़मानतयाफ़्ता अपने बरी होने का गलत प्रकार से लाभ उठाते हैं। ज़मानत रदद्गी इस तरह के दुष्प्रयोग को रोकने का सबसे स्पष्ट प्रकट तरीका है।
पीड़ितों और आरोपितों के अधिकारों के बारे में चिंता करने या न करने को लेकर ऐतिहासिक रूप से विभिन्न न्यायाधीशों और पीठों ने अलग अलग विचारों और विचारधाराओं का अनुगमन किया है। हम सभी प्रेक्षक यह भी जानते हैं कि न्यायिक निर्णयों को वैधानिक अथवा अवैधानिक प्रणालियों से प्रभावित करने वाली अनेक शक्तियां हमारे देश में विद्यमान हैं और सफ़लता अथवा असफ़लता से कार्यरत हैं। यह विवाद योग्य है कि इस क्षेत्र में व्यापक प्रवृत्तियाँ प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती हैं या फिर नहीं दिखाई देती हैं। प्रधानता का घंटा कभी पीड़ित वर्ग तो कभी आरोपित वर्ग की ओर झूलता रहा है। पूर्व काल में इस का झुकाव (या उठाव) आरोपियों की ओर था, जिस की वजह विधि प्रवर्तन में भ्रष्टाचार रोधक किसी भी विश्वास योग्य रोक टोक का घोर अभाव था। अब ऐसी स्थिति है कि आरोपियों को शक्तिशाली मीडिया और जनमत से दो चार होना पड़ता है। ये सब वे कैसे करते है, इसके बारे में इस वेबसाइट पर अलग अलग जगहों पर इस लेखक के विचार पाठकों के मूल्यांकन के लिए प्रेषित किये गए हैं।
ज़मानत घोषित होने के बाद ज़मानतयाफ़्ता से छीनी जा सकती है। ज़मानत रदद्गी का प्रावधान आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा ४३७(५) और धारा ४३९(२) में सम्मिलित है।
साधारणतयः ऐसा निरस्तीकरण ऐसी परिस्थिति में किया जाता है जहां आरोपी ने ज़मानत घोषित करने वाले जज के आदेश की कोई शर्त / शर्तें भंग करी हो / हों। तथापि, ऐसा करने की ज़रुरत पैदा करने वाली अन्य परिस्थितियां भी होती हैं, और ऐसी परिस्थितियों की गिनती को अनगिनत आंकना सच्चाई से परे नहीं होगा। ऐसी परिस्थितियों की कोई लिखित सूची जगत में कहीं भी प्राप्य नहीं है। ज़मानत निरस्तीकरण के फ़ैसले जजों द्वारा किसी भी अपराध और उस के बाद की घटनाओं के तथ्यों और परिस्थितियों को दृष्टि में रख कर किया जाता है। तथ्यों और परिस्थितयों की समग्रता को दृष्टिगत रख के भारत के न्यायालयों में न सिर्फ़ ज़मानत रदद्गी, बल्कि और भी अनेकानेक प्रकार के मुद्दों के फ़ैसले किये जाते हैं। यह बड़ा ही सामान्य वैधानिक सिद्धांत है और इसे सहज अंतर्बुद्धि की सहायता से सोच निकालना किसी भी साधारण चिंतक के लिए सुगम है।
किसी आरोपी के ज़मानत आदेश की शर्तों का उल्लंघन करने मात्र से ज़मानत स्वतः रद्द नहीं हो जाती। अभियोजन पक्ष को पहले उपयुक्त वैधानिक मंच तक जा कर ज़मानत रदद्गी हेतु आवेदन करना पड़ता है। सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत पहले यह राय बनाई थी की ज़मानत आवेदन को ख़ारिज करना और पहले से मिली हुई ज़मानत को रद्द करना दो बिलकुल अलग अलग वस्तुएं हैं, और उन के साथ ठीक वैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, जैसा दो अलग अलग वस्तुओं के साथ किया जाता है।। सर्वोच्च न्यायालय की खंड पीठ (आदर्श सेन आनंद एवं मनोज कुमार मुख़र्जी) ने दोलत राम बनाम हरियाणा राज्य, JT १९९५ (१) (SC) १२७: (१९९५) १ SCC ३४९: (१९९४) Supp ६ SCR ६९: (१९९४) ४ SCALE १११९ [3] प्रकरण में आदेश देते हुए निर्णायक टिप्पणी करी थी कि, "किसी गैर ज़मानती प्रकरण में ज़मानत देने से इंकार करने, और इस रास्ते पर पहले से मिली हुई किसी ज़मानत को रद्द करना, इन दोनों परिकल्पनाओं को दो अलग अलग आधारों पर विचाराधीन लेना चाहिए, और दो अलग अलग आधारों पर फ़ारिग करना / निपटाना चाहिए। पहले से दी गयी ज़मानत को रद्द करने के लिए बड़ी ही ज़ोरदार, और बेपनाह गैर मामूली परिस्थितियों की ज़रुरत है। हमें ऐसा प्रतीत होता है कि उच्च न्यायालय ने एक तरफ़ गैर ज़मानती प्रकरण में ज़मानत आवेदन को नामंज़ूर करने के प्रासंगिक कारकों और दूसरी तरफ़ पहले से मिली हुई ज़मानत को रद्द करने के कारकों के बीच के फ़र्क को नज़रअंदाज़ किया है।"
कालांतर में इन जजों की राय का आंशिक खंडन मार्कण्डेय काटजू एवं ज्ञान सुधा मिश्रा की खंडपीठ द्वारा घोषित २०११ के एक निर्णय में हुआ। पीठ की ओर से काटजू ने फ़र्ज़ी मुठभेड़ के प्रकरण में शेक्सपियर और वेद व्यास की रचनाओं से लिए गए उद्धरणों से ओत-प्रोत निर्णय लिखा। वर्तमान सन्दर्भ में निर्णय का क्रियाशील अंश निम्नलिखित था, "बहरहाल, हमारी यह राय है कि यह नियम अखण्डनीय नहीं है, और यह मुआमले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर रहेगा। ज़मानत को निरस्त करने या न करने का निर्णय लेते समय न्यायालय को जुर्म की गंभीरता और स्वरूप, आरोपी के विरुद्ध प्रथमदृष्टा प्रकरण, आरोपी की हैसियत और सामाजिक प्रतिष्ठा, इत्यादि को ध्यान में लेना पड़ता है। अगर मुल्ज़िम के ख़िलाफ़ बहुत संजीदा इल्ज़ामात हैं तो उस के हाथों (पहले से मिली हुई) ज़मानत का दुष्प्रयोग न होने के बावजूद भी ज़मानत निरस्त की जा सकती है। यही नहीं, उपरोक्त सिद्धांत सिर्फ़ उस स्थिति में लागू होता है जब उसी अदालत में ज़मानत निरस्तीकरण आवेदन डाला जाता है जिस अदालत ने ज़मानत आदेश पारित किया हो। जब किसी ऊँची अदालत में पुनर्विचार याचिका विचाराधीन हो तब यह सिद्धांत प्रयोज्य नहीं है।" (प्रकाश कदम एवं अन्य बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता एवं अन्य, AIR २०११ SC १९४५) [4]। यदि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है तो अनुरोध प्रकट किया जाता है कि इस निर्णय की पृष्ठभूमि और इस का सन्दर्भ आनंद और मुख़र्जी का उपरोक्त निर्णय ही है, और जहाँ पर खंड पीठ कह रही है कि "...हमारी यह राय है कि यह नियम अखण्डनीय नहीं है...", वहां "नियम" से उन का अभिप्राय आनंद और मुख़र्जी के फ़ैसले द्वारा निर्धारित नियम से है।। वर्तमान में दोनों निर्णयों को वकीलों द्वारा पूर्वोदाहरणों के रूप में प्रयोग किया जाता है। ऐसा इसलिए है कि दोनों फ़ैसले दो दो जजों की खण्डपीठों ने दिए हैं, और इसलिए दूसरा फैसला पहले फैसले को काट नहीं पाया।
अभियोग पक्ष या फिर शिकायतकर्ता के लिए ज़मानत निरस्त कराना अक्सर बहुत मुश्किल हो जाता है। जनरल तेजिंदर सिंह जनरल वी के सिंह की ज़मानत निरस्त कराने में नाकामयाब रहे [5] [6]। मान लेते हैं कि वे ऐसा नहीं कर पाये क्यूंकि अभियोग को वे निजी स्तर पर संचालित कर रहे थे और आरोपों को प्रथमदृष्टा सत्य नहीं पाया गया था। संजीव नंदा प्रकरण में उनके वकील आर के दीवान के गलत आचरण के बावजूद नंदा की ज़मानत निरस्त नहीं हुई थी। जेसिका लाल हत्या प्रकरण में अभियोग पक्ष के एक गवाह के गायब हो जाने के बाद मनु शर्मा की अंतरिम ज़मानत रद्द तो हुई थी लेकिन बाद में उसे नियमित ज़मानत मिल गयी थी [7] [8]। आई पी एल स्पॉट फिक्सिंग प्रकरण में दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ के भरसक प्रयासों के बावजूद श्रीसंथ की ज़मानत रद्द नहीं हुई। शकील नूरानी ने संजय दत्त के विरुद्ध मुंबई धमाके के प्रकरण में निजी याचिका सिर्फ़ इसलिए प्रेषित की थी के वे दत्त की ज़मानत निरस्त करवाना चाहते थे, लेकिन हा विफलता [9]।
गौर तलब है कि उपरोक्त संजय दत्त प्रकरण में एक तृतीय पक्ष ने अभियोजन का हिस्सा या फिर शिकायतकर्ता न होते हुए भी ज़मानत निरस्तीकरण याचिका प्रेषित की थी। यह नुक्ता आपराधिक अभियोग प्रक्रिया के उन दुर्लभ नुक्तों में से है जिन में तृतीय पक्षों के हस्तक्षेप अनुज्ञप्त हैं / मंज़ूर हैं। यहाँ यह बताना उचित रहेगा के इस नुक्ते से सम्बंधित सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों में परस्पर विरोध प्रतीत होता है। जस्टिस पी सदाशिवम और बी एस चौहान ने उपरोक्त सुनवाई में नूरानी को सलाह दी थी कि यदि वे संजय दत्त और अपने बीच के वित्तीय मतभेदों का न्यायिक फैसला करवाना चाहते थे तो उन्हें अपनी ओर से निजी प्राथमिकी दर्ज़ करवानी चाहिए थी, न कि ज़मानत रदद्गी याचिका डालने का रास्ता अख्तियार करना चाहिए था। पीठ की यह टिप्पणी "हिन्दू" अख़बार में भी प्रकाशित हुई थी, "(फिल्म) निर्माता इस (मुंबई धमाके) आपराधिक प्रकरण में कैसे घुसा हुआ है? आप प्राथमिकी दर्ज़ कीजिये। हम आप की याचिका को ख़ारिज कर रहे हैं।" यह आदेश सीधा सीधा राजपाल बनाम जगवीर सिंह, १९७९ All Cr Rep ५१४ [10]। (Jai, J.R., Bail Law and Procedure, Universal Law Publishing Company, २०१२, Delhi) के निर्णय में जो कहा गया था उस से ठीक विपरीत है। इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में कहा था कि ज़मानत निरस्तीकरण याचिका प्रेषित करना सिर्फ़ सरकारी पक्ष का एकाधिकार नहीं है, अपितु कोई भी तीसरा पक्ष ऐसी याचिका प्रेषित कर सकता है। जे आर जय ने अपनी पुस्तक में इस आदेश की विस्तृत जानकारी प्रदान नहीं करी है, लेकिन यह आदेश इंटरनेट पर कम से कम एक स्थान पर उपलब्ध है [11]। नूरानी की याचिका के सन्दर्भ में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कभी कभी प्रार्थियों की मंशाएं साफ़ नहीं होती हैं। ऐसा हर प्रकार के प्रकरणों में होता है, यहाँ तक कि जनहित याचिकाओं में भी।
आर रतिनम बनाम राज्य पुलिस उपाधीक्षक द्वारा, District Crime, [(२०००) २ SCC ३९१] [12]] में सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने ऐसे मत की अभिव्यक्ति की थी कि तृतीय पक्ष द्वारा दायर ज़मानत निरस्तीकरण याचिकाएं राज्य को स्वतः कार्रवाई शुरू करने की उस की अपनी ज़िम्मेदारी उसी को समझाने की कोशिश के रूप में स्वीकार की जा सकती हैं। इस निर्णय में जज के थॉमस और डी मोहपात्रा थे। तथापि अब यह कानून स्थापित हो गया है कि तृतीय पक्ष ऐसी याचिकाएं प्रेषित कर सकते हैं।
कभी कभी ज़मानत निरस्त हो जाती है या फिर निरस्तीकरण हेतु बहुत मज़बूत केस बना दीखता है। २ जी प्रकरण में संजय चन्द्रा ने जन अभियोजक ए के सिंह से अपने अभियोजन की बात की थी और यह बात सीबीआई को मालूम हो गयी थी। इस के बाद सीबीआई ने उस की ज़मानत निरस्त करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की थी। यह अलग बाद है की चंद्रा की ज़मानत निरस्त नहीं हो पायी [13] (एच एल दत्तू द्वारा संचालित पीठ ने मन कर दिया), लेकिन सीबीआई का अभियोग मज़बूत हो गया। उपहार सिनेमा अग्निकांड प्रकरण में मुकदमे के कागज़ों को चोरी करने के इलज़ाम के फलस्वरूप अंसल बंधुओं की ज़मानत रद्द हो गयी थी [14]। इतना ही नहीं, उन पर तत्पश्चात यह इलज़ाम भी लगाया गया था की वे अपनी सहूलियत के जजों की पीठ तलाश रहे हैं। विजय साईं रेड्डी को जगनमोहन रेड्डी के आय से अधिक संपत्ति प्रकरण में एकबारगी ज़मानत मिल तो गयी थी, पर बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई विशेष अदालत द्वारा दी गयी ज़मानत रद्द भी कर दी थी [15]। आर के अग्रवाल को झारखण्ड नोट के बदले वोट घोटाले में ज़मानत मिलने के बाद निरस्त हो गयी थी [16]।
सत्यम इन्फोवे घोटाला और औद्योगिक धोखाधड़ी प्रकरण में, जिस में रामलिंगा राजू मुख्य आरोपी हैं, एस गोपालाकृष्णन और वी एस प्रभाकरा गुप्ता के साथ जो हुआ, वो इस से कुछ हट कर है। उस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के सकारात्मक ज़मानत आदेश को ही निरस्त कर दिया। ऐसा ज़मानत निरस्तीकरण से कुछ अलग है, जैसा कि पी सदाशिवम और बी एस चौहान द्वारा दिए गए तर्कपूर्ण आदेश में समझाया गया था [17]। यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि उक्त आदेश में दोनों सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीशों द्वारा धारण किया गया कानूनी मुक़ाम आम तौर पर व्यक्त किये जाने वाले उस वैधानिक सिद्धांत से उल्टी है, जिस के अनुसार प्रत्येक ज़मानत आदेश एक अंतिम आदेश होता है। इस वैधानिक सिद्धांत के कारण किसी भी सकारात्मक ज़मानत आदेश को चुनौती केवल परोक्ष रूप से दी जा सकती है, ज़मानत निरस्तीकरण याचिका प्रेषित कर के, न कि ज़मानत आदेश के विरुद्ध अपील प्रेषित कर के।
यदि आप को अपने ४९८अ (498a) मुकदमे (धारा ४९८अ (498a)/४०६/३४ या किन्ही अन्य धाराओं के अंतर्गत) में ज़मानत मिल जाती है तो जज द्वारा निर्धारित सभी शर्तों का पालन करने का भरसक प्रयास करें। सबसे ज़रूरी यह है कि अपने दोषरोपक से सीधे या घुमावदार रस्ते से संपर्क स्थापित करने की कोशिश न करें। यहां तक कि उस का नाम भी न लें, सिवाए तब के जब कागज़ों में ऐसा करना पड़े। ठीक इसी तरह जन अभियोजक से मुकद्दमे से पहले, मुकद्दमे के दौरान, या उस के बाद संपर्क स्थापित करने की कोशिश बिलकुल ना करें। जहां तक तहकीकात अफसर का सवाल है, वह आप को अपने आप फ़ोन करेगा या लिख के नोटिस वगैरह देगा। उससे सिर्फ़ असाधारण परिस्थितियों में संपर्क करें। इस बात का पूरा ख्याल रखें कि तहकीकात अफसर आप से सभी साधारण समयों पर संपर्क स्थापित कर सके। सबसे ज़रूरी याद रखने लायक बात यह है कि आरोपी को अपने आप को बेक़सूर ठहराने के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने कानूनी बचाव का सहारा लेना होता है, और उसे इस रास्ते के अलावा मुकद्दमे को किसी और रास्ते से प्रभावित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
काबिल ए ज़मानत मामलों में ज़मानत अधिकारस्वरूप दी जाती है। लेकिन ऐसी ज़मानत को भी आरोपी के अभियोग प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने पर रद्द किया जा सकता है। ध्यान रहे कि अपने द्वारा दी गयी ज़मानत को रद्द करने का अधिकार मजिस्ट्रेट को सिर्फ़ गैर ज़मानती मामलों में प्राप्त है। काबिल ए ज़मानत मामलों में ऐसा सिर्फ़ सत्र न्यायालय या उस से ऊंचा कोई न्यायालय कर सकता है।
एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि ज़मानत निरस्त करने का अधिकार केवल ज़मानत देने वाली अदालत या उस से ऊंची अदालत को है। यह नियम पिछले अनुच्छेद में दी गयी शर्त को छोड़ कर ज़मानती और गैर ज़मानती, दोनों प्रकार के मामलों में लागू होता है। सत्र न्यायालय उच्च न्यायालय द्वारा पारित ज़मानत आदेश को निरस्त नहीं कर सकता, और उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित ज़मानत आदेश को। सर्वोच्च न्यायालय का अकेला जज सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ (२ जजों की पीठ) के ज़मानत आदेश को निरस्त नहीं कर सकता। आखरी नियम उच्च न्यायालय पर भी लागू है।
पिछला लेख (अग्रिम ज़मानत आदेश में संभावित शर्तों के बारे में)। / In English (about conditions and restrictions in AB orders)
अगला लेख (भारतव्यापी तमाशा-ए-ज़मानत के बारे में)। / In English (about the nationwide bail circus in India)
स्त्रोत:
१) (अंग्रेज़ी में) आपराधिक प्रक्रिया संहिता, १९७३, धारा ४३७; Indiankanoon.org; दिल्ली; बिना तारीख़
२) (अंग्रेज़ी में) आपराधिक प्रक्रिया संहिता, १९७३, धारा ४३९; Indiankanoon.org; दिल्ली; बिना तारीख़
३) (अंग्रेज़ी में) दौलत राम बनाम हरियाणा राज्य, २४ नवम्बर १९९४; Indiankanoon.org; दिल्ली; बिना तारीख़
४) (अंग्रेज़ी में) प्रकाश कदम और वगैरह वगैरह बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता और एक और, १३ मई, २०११; Indiankanoon.org; दिल्ली; बिना तारीख़
५) (अंग्रेज़ी में) ज़मानत रदद्गी हेतु याचिका पर अदालत द्वारा पूर्व सेना प्रमुख को नोटिस जारी; Deccan Chronicle; नई दिल्ली; २८ नवम्बर २०१३
६) (अंग्रेज़ी में) तेजिंदर सिंह ने पूर्व सेना प्रमुख की ज़मानत रद्द करने की मांग की; Outlook; नई दिल्ली; २५ नवम्बर २०१३
७) (अंग्रेज़ी में) सर्वोच्च न्यायालय ने किया मनु शर्मा की ज़मानत याचिका को ख़ारिज; Times of India; नई दिल्ली; ३ दिसंबर २००३
८) (अंग्रेज़ी में) मनु शर्मा को ज़मानत नहीं मिली; Times of India; नई दिल्ली; २ दिसंबर २००३
९) (अंग्रेज़ी में) सुप्रीम कोर्ट ने संजय दत्त की ज़मानत को रद्द करने हेतु शकील नूरानी द्वारा प्रेषित याचिका को ख़ारिज किया; India Today; नई दिल्ली; ४ जुलाई २०११
१०) जय, जे. आर.; (अंग्रेज़ी में) Bail Law and Procedure; Universal Law Publishing Company; ; २०१२; दिल्ली
११) (अंग्रेज़ी में) राजपाल बनाम जगवीर सिंह और (गलती); The Laws - Encyclopaedia of Indian Laws; अहमदाबाद; बिना तारीख़
१२) (अंग्रेज़ी में) आर. रथिनम बनाम राज्य (द्वारा डीएसपी), जिला अपराध ... ८ फ़रवरी २०००; Indiankanoon.org; नई दिल्ली; बिना तारीख़
१३) (अंग्रेज़ी में) २ जी: सर्वोच्च न्यायालय ने यूनिटेक के प्रबंध निदेशक संजय चंद्रा की जमानत को रद्द करने से इनकार किया; The Hindu Business Line; नई दिल्ली; २४ मार्च २०१४
१४) (अंग्रेज़ी में) अंसल बंधुओं की ज़मानत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हुई रद्द; Hindustan Times; नई दिल्ली; १० सितम्बर २००८
१५) (अंग्रेज़ी में) सी.बी.आई बनाम वी. विजय साईं रेड्डी, ९ मई २०१३; Indiankanoon.org; नई दिल्ली; बिना तारीख़
१६) (अंग्रेज़ी में) सीबीआई अदालत ने आर. के. अग्रवाल की ज़मानत को रद्द किया; The Pioneer; रांची; ८ मई २०१३
१७) (अंग्रेज़ी में) सीबीआई हैदराबाद बनाम सुब्रमणि गोपालकृष्णन और एक और, २१ अप्रैल २०११; Indiankanoon.org; नई दिल्ली; बिना तारीख़
मनीष उदार द्वारा लिखित
मनीष उदार द्वारा प्रकाशित।
पृष्ठ
११ अप्रैल २०१५ पर बनाया गया
अंतिम अद्यतन
२८ मार्च २०१८ को किया गया