जमानत शर्तें: अवलोकन
पृष्ठ शीर्षभागजो जज आप को (या किसी और को) ज़मानत पर बरी करता है, उसे –ज़मानत आदेश पारित करने के वक़्त– यह अधिकार है कि वह ज़मानत पर बरी हुए रहने के समय आप के व्यवहार से सम्बंधित कुछ विशेष पाबंदियां आप पर (या सम्बंधित व्यक्ति पर) लागू कर दे। ये पाबंदियां उस वक्त तक कायम रहेंगी जब तक कि आप ज़मानतयाफ्ता रहेंगे और आप के विरूद्ध धारा ४९८अ (498a)/४०६/३४ के अंतर्गत मुकद्दमा किसी (और भी) अदालत में चलता रहेगा। मुझे अपनी बात दुसरे शब्दों में कहने की आज्ञा देवें। इस बात को सीधे तौर पर यूं भी कहा जा सकता है कि जज जो मर्ज़ी शर्तें आप पर लागू करना चाहे, वे शर्तें लागू कर सकता है, बशर्ते कि ऐसी शर्त गैर कानूनी न हो।
जजों को यह अधिकार आपराधिक प्रक्रिया संहिता की विविध धाराओं से मिला है; ख़ास तौर से धारा ४३७ और ४३८ से। वर्तमान चर्चा के सीमित प्रयोजन हेतु यह कहा जा सकता है कि इन में से दूसरी धारा उन आरोपित लोगों पर लागू होती है जो अग्रिम ज़मानत आवेदन पश्चात अग्रिम ज़मानत प्राप्त कर चुके हैं, और पहली धारा उन लोगों पर प्रयोज्य है जो ज़मानत मिलने से पहले कुछ वक्त हवालात में बिता चुके हों, जिसे कहने का दूसरे शब्दों में अर्थ है वे आरोपित जन जिन्हें अग्रिम ज़मानत न मिल पायी हो। ऐसा प्रतीत होता है कि इस धारा (आपराधिक प्रक्रिया धारा ४३७) को ज़यादा दिमाग खर्च किए बगैर लिखा गया था। इस निष्कर्ष पर यह लेखक किस प्रकार पहुंचा, यह निम्नानुसार है।
आपराधिक प्रक्रिया सहितान्तर्गत धारा ४३७ के अंतर्गत संभावित ज़मानत शर्तों की समीक्षा
पृष्ठ शीर्षभागधारा ४३७ में कुछ ऐसे प्रतिबंधों का उल्लेख है जो कि जज द्वारा भारतीय दंड संहिता के छठे, सोलहवें या/एवं सत्रहवें अध्याय के अंतर्गत किसी जुर्म से सम्बंधित मामले में दी गयी ज़मानत के साथ अनिवार्य हैं। छठा अध्याय राज्य या सर्कार के विरुद्ध अपराधों का उल्लेख करता है, सोलहवां मानव शारीर के विरूद्ध अपराधों का, और सत्रहवां संपत्ति के विरूद्ध अपराधों का। अपराधों के साथ साथ प्रासंगिक दंडों का ब्यौरा भी उपयुक्त अध्यायों में दिया गया है। ध्यान रहे कि इन अपराधों को करने की कोशिश, या इन अपराधों को करने की साज़िश, या इन अपराधों को करने के लिए किसी को प्रेरित करने की स्थिति में चलाये गए मामलों में भी अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा ४३७ में वर्णित पाबंदियों को लगाना अनिवार्य है। इसके अलावा यह भी गौर तलब है कि जज को यह अधिकार नहीं है कि वह ये पाबंदियां न लगाए। ७ साल या उस से ज़यादा अवधि से दंडनीय अपराधों में भी ये प्रतिबन्ध अनिवार्य हैं।
इन प्रतिबंधों की गिनती तीन है।
पहली शर्त यह है कि ज़मानत पर बरी व्यक्ति को प्रासंगिक अध्याय के तहत उस के द्वारा निष्पादित / हस्ताक्षरित ज़मानतनामे में लिखी गयी सभी शर्तों का पालन करना पड़ता है। यहाँ पर प्रयोग करी गयी अभिव्यक्ति "इस अध्याय के अंतर्गत उनके द्वारा निष्पादित जमानतनामा" भ्रामक है। यह अभिव्यक्ति मिथ्या भी है, क्यूंकि इसका यह मतलब कतई नहीं निकाला जा सकता कि किसी और अध्याय के तहत निष्पादित ज़मानतनामे में ऐसी शर्तें नहीं डाली जा सकती हैं। जब शर्त यह है कि जज कोई भी शर्त दाल सकता है, तो फिर इस अध्याय या उस अध्याय का क्या मतलब? यहाँ भ्रान्ति इसलिए भी पैदा हो सकती है कि यहाँ यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि जिस अध्याय का ज़िक्र किया जा रहा है वह अध्याय भारतीय दंड संहिता का है या फिर अपराध प्रक्रिया संहिता का। ऐसा संशय पैदा होना स्वाभाविक है, क्यूंकि धारा ४३७ में बार बार भारतीय दंड संहिता का ज़िक्र किया गया है। यदि ज़मानतनामे की पाबंदियां पुलिस तय करती है, तो इस धारा को ऐसी धारा मानना गलत नहीं होगा, जो कि गैर ज़िम्मेदार लोगों को अनाप शनाप शक्तियां प्रदान करती है।
अनुभाग ४३७ के तहत दूसरी अनिवार्य शर्त यह है कि "संदिग्ध व्यक्ति जिस अपराध के तहत आरोपित है, वैसे अपराध को ज़मानतयाफ्ता होने पर नहीं दोहराएगा। यह एक बचकानी लिखित पाबंदी है, इसलिए कि यहाँ ऐसी बात को दोहराया जा रहा है जो कि वास्तविकता में हर वक्त हर नागरिक पर लागू है। जिन व्यक्तियों पर झूठे आरोप मढ़े गए हैं, वे इस बात को देखेंगे कि एक झूठे आरोप के अंतर्गत चल रहे मामले में यदि आप को ज़मानत मिल जाती है, तो इस शर्त का फायदा उठा कर एक दूसरा झूठा आरोप लगा कर आप के दुश्मन आप को फिर से हवालात पहुंचा सकते हैं। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर धारा ४३७ और ४३८ आप का सीमित रूप से बचाव करती हैं। वो कैसे? वो ऐसे कि इन धाराओं का प्रयोग कर के आप फिर से ज़मानत लेने की कोशिश कर सकते हैं, बशर्ते आप इस से पहले किन्हीं विशेष प्रकार के अपराधों के दोषी नहीं ठहराए गए हैं, जिनका ब्यौरा आप इस लेख में पढ़ सकते हैं।
तीसरी शर्त ही ऐसी है जिसे देख के प्रतीत होता है कि किसी समझदार इंसान ने लिखी है। "ज़मानतयाफ्ता व्यक्ति किसी भी ऐसी व्यक्ति, जो मामले से वाकिफ हो, से संपर्क इस आशय के साथ स्थापित नहीं करेगा, कि उसे कोई ऐसा प्रलोभन, वायदा, या धमकी दे, जो उसे (मामले से वाकिफ व्यक्ति को) अदालत या पुलिस को मामले की सच्चाई न बताने को बाधित या लालायित करे। ज़मानतयाफ्ता सबूतों के साथ छेड़छाड़ नहीं करेगा।" यह कानूनी प्रावधान बहुत उम्दा और स्वागत योग्य है। वाकई, ज़मानतयाफ्ता इस शर्त का पूर्णतः पालन कर के अदालत को कुछ हद तक अपनी नेकनीयती का सबूत दिखा सकता है।
जज को खंड ४३७ के द्वारा यह अधिकार भी प्राप्त है कि वह कोई भी अन्य पाबंदी ज़मानत देने के वक्त ज़मानतयाफ्ता पर लगा दे। यह अनावश्यक उपधारा है, क्यूंकि जज को ४३७(३) कि उपधारा (i) के अंतर्गत पहले ही यह अधिकार दिया जा चूका है, जैसा कि ऊपर समझाया जा चुका है।
गौर तलब है कि धारा ४०६ संपत्ति के विरूद्ध अपराधों कि श्रेणी में आती है, जो कि भारतीय दंड संहिता के सत्रहवें अध्याय में वर्णित हैं। इसलिए जज को (उस स्थिति में जब ज़मानत याचिका हिरासत में ज़रा सा भी समय बिताने के बाद डाली जाये) यह प्राधिकार नहीं है कि वह धारा ४३७ में बतायी गई तीनों में से कोई भी शर्त ज़मानतयाफ्ता पर लागू न करे।
आपराधिक प्रक्रिया सहितान्तर्गत धारा ४३८ के अंतर्गत संभावित ज़मानत शर्तों की समीक्षा
पृष्ठ शीर्षभागअब तक उन शर्तों का वर्णन किया गया है जो कि उस प्रकार की ज़मानत के साथ लगायी जाती हैं, जो अग्रिम न हो। धारा ४३८ में अग्रिम ज़मानत सम्बंधित प्रावधानों का दर्शन किया जा सकता है। अग्रिम ज़मानत से सम्बंधित अनिवार्य एवं वैकल्पिक शर्तें भी इस अनुभाग की उपधाराओं में दी गयी हैं।
उपधारा ४३८(१ब)(iv) के अनुसार जज को यह अधिकार है कि वह धारा ४३७ में वर्णित शर्तें ज़मानतयाफ्ता पर लागू कर सके, लेकिन इस का यह मतलब कतई नहीं है कि ऐसी शर्तें लगाना जज के लिए लाज़मी या अनिवार्य है। इस उपधारा से पहले तीन और उपधाराएं हैं, जिन में निम्नलिखित शर्तें डालने का प्रावधान है —
१) आरोपित व्यक्ति पूछताछ के लिए पुलिस की मांग पर उपलब्ध रहेगा।
२) ज़मानतयाफ्ता व्यक्ति किसी भी ऐसी व्यक्ति, जो मामले से वाकिफ हो, से संपर्क इस आशय के साथ स्थापित नहीं करेगा, कि उसे कोई ऐसा प्रलोभन, वायदा, या धमकी दे, जो उसे (मामले से वाकिफ व्यक्ति को) अदालत या पुलिस को मामले की सच्चाई न बताने को बाधित या लालायित करे। ज़मानतयाफ्ता सबूतों के साथ छेड़छाड़ नहीं करेगा।
३) आरोपी अदालत की आज्ञा के बिना भारत से बाहर नहीं जायेगा।
ये सारी शर्तें वैकल्पिक हैं। यही कारण है कि अग्रिम ज़मानत की आम ज़मानत से बेहतर होने की काफी अधिक सम्भावना है। और इसी वजह से अग्रिम ज़मानत विशेष रूप से वांछित है।
दूसरी उपधारा का विश्लेषण ऊपर किया जा चुका है। पहली उपधारा बहुत उचित है, और यह सवाल उठ सकता है कि इस उपधारा में दी गयी शर्त अनिवार्य क्यूँ नहीं है। शायद इसका कारण विधायिका की पुलिस को ज़यादा शक्तियां न देने की इच्छा में पाया जा सकता है।
तीसरी उपधारा में भारतीय मूल के व्यक्तियों और प्रवासी भारतियों को विशेष दिलचस्पी होना स्वाभाविक है। यदि आप भारत से बाहर काम करते हैं, तो ध्यान रखें कि आप का वकील आप की अग्रिम ज़मानत याचिका में अदालत से अग्रिम ज़मानत के साथ साथ आप को देश से बाहर जाने की छूट की इजाज़त भी मांगे।
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